up school band

लेखक: संपादकीय टीम, विश्व सेवा संघ


प्रस्तावना

भारत के संविधान में शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया है। ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009’ (Right to Education Act) के तहत 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी दी गई है। इसके बावजूद जब किसी राज्य में सैकड़ों सरकारी विद्यालय बंद किए जाते हैं या मर्ज किए जाते हैं, तो यह चिंता का विषय बन जाता है।उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों का बंद

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पिछले कुछ वर्षों में हजारों प्राथमिक और जूनियर सरकारी विद्यालयों को ‘कम छात्र संख्या’ के आधार पर बंद करने या एकीकृत करने की नीति अपनाई गई है। यह नीति जहां सरकार के अनुसार संसाधनों के कुशल उपयोग की दिशा में उठाया गया कदम है, वहीं शिक्षाविदों, विपक्ष और आम जनता के लिए यह बच्चों के शिक्षा के अधिकार पर कुठाराघात की तरह प्रतीत हो रही है।


सरकारी स्कूलों के बंद होने के कारण

राज्य सरकार का कहना है कि:

  1. छात्र संख्या में गिरावट:
    कई स्कूलों में छात्रों की संख्या 20 से भी कम रह गई थी, जिससे शिक्षक व संसाधन व्यर्थ जा रहे थे।
  2. शिक्षा की गुणवत्ता सुधार हेतु मर्जिंग नीति:
    एक ही ग्राम पंचायत या आस-पास के क्षेत्र में स्थित कई छोटे विद्यालयों को मिलाकर एक बेहतर संसाधनयुक्त विद्यालय तैयार करना इस नीति का उद्देश्य है।
  3. शिक्षकों की तैनाती में संतुलन:
    शिक्षकों की अनुपलब्धता और स्थानांतरण से उपजे असंतुलन को दूर करने के लिए यह कदम जरूरी बताया गया है।
  4. प्राकृतिक संसाधनों का केंद्रीकरण:
    सरकार का तर्क है कि इससे लाइब्रेरी, खेलकूद सामग्री, डिजिटल शिक्षा, लैब आदि सुविधाएं एक ही स्थान पर बच्चों को बेहतर रूप में उपलब्ध कराई जा सकती हैं।

दुष्परिणाम: शिक्षा व्यवस्था पर सीधा असर

सरकारी स्कूलों को बंद करने से कई गंभीर दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं:

1. ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में शिक्षा का पतन

जिन गांवों में पहले ही शैक्षणिक संसाधन सीमित थे, वहां स्कूलों का बंद होना शिक्षा को और दूर कर देता है। छोटे बच्चों के लिए 2-3 किमी दूर पैदल स्कूल जाना एक चुनौती बन जाती है, जिससे ड्रॉपआउट बढ़ते हैं।

2. बालिकाओं की शिक्षा पर सीधा प्रहार

ग्रामीण भारत में माता-पिता लड़कियों को दूर स्थित विद्यालय में भेजने से हिचकते हैं। इससे किशोर बालिकाओं की शिक्षा बाधित हो रही है।

3. गरीब और दलित वर्ग के बच्चे प्रभावित

जो परिवार निजी स्कूल की फीस नहीं दे सकते, उनके बच्चों के पास शिक्षा छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।

4. शिक्षक वर्ग की अनिश्चितता

स्कूलों के मर्ज होने के कारण शिक्षकों के स्थानांतरण और पदस्थापन में अनियमितता बढ़ी है, जिससे कई शिक्षक मानसिक तनाव में हैं।

5. शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा

सरकारी स्कूलों की समाप्ति से निजी स्कूलों की मांग बढ़ी है, जिससे शिक्षा का बाजारीकरण हो रहा है और गरीब परिवार हाशिए पर जा रहे हैं।


जनता की प्रतिक्रिया

सरकारी स्कूलों के बंद होने को लेकर जनता की राय मिश्रित परंतु प्रबल रूप से नकारात्मक रही है।

1. अभिभावकों की नाराज़गी

ग्रामीण और शहरी गरीब परिवारों में रोष है कि अब बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्हें निजी स्कूलों का खर्च उठाना पड़ेगा, जो उनके बजट के बाहर है।

2. पंचायतों और स्थानीय निकायों की मांग

कई ग्राम पंचायतों ने विद्यालयों को दोबारा खोलने के लिए ज्ञापन सौंपे हैं। उनका कहना है कि स्कूलों को बंद करने से गांवों का शैक्षणिक व सामाजिक वातावरण कमजोर हुआ है।

3. सामाजिक संगठनों का विरोध

अध्यापक संगठनों, शिक्षा अधिकार मंच, छात्र संघों और सामाजिक संस्थाओं ने इस फैसले का विरोध करते हुए इसे संविधान के अनुच्छेद 21A का उल्लंघन बताया है।

4. सोशल मीडिया पर विरोध की लहर

ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब पर आम लोग लगातार यह सवाल उठा रहे हैं कि शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकता में कटौती क्यों की जा रही है।


विपक्ष का पक्ष

राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे को पुरज़ोर तरीके से उठाया है। विपक्ष ने कहा है:

  • शिक्षा विरोधी नीति:
    यह फैसला गरीबों को शिक्षा से दूर करने वाला और संविधान विरोधी है।
  • नीतिगत असंवेदनशीलता:
    बिना ग्रामसभा की राय लिए, बिना जन सुनवाई किए हजारों स्कूलों को बंद करना लोकतांत्रिक व्यवस्था की अवहेलना है।
  • निजीकरण का षड्यंत्र:
    सरकार शिक्षा को निजी क्षेत्र के हवाले करना चाहती है, जिससे गरीब और पिछड़ा वर्ग शिक्षा से वंचित होगा।
  • सड़क से सदन तक विरोध:
    कई विधायक और सांसद इस मुद्दे को विधानसभा और संसद में उठा चुके हैं। साथ ही, जन आंदोलनों और धरना-प्रदर्शन का नेतृत्व भी कर रहे हैं।

सरकार का पक्ष

सरकार का मानना है कि:

  • छात्रों की सुविधा का ध्यान रखा गया है:
    जहां भी स्कूल मर्ज किए गए हैं, वहां ट्रांसपोर्ट सुविधा, मिड-डे मील और किताबों की समुचित व्यवस्था की गई है।
  • गुणवत्ता शिक्षा का लक्ष्य:
    स्कूलों की संख्या नहीं, गुणवत्ता बढ़ाना सरकार की प्राथमिकता है। छोटे-छोटे विद्यालयों में गुणवत्ता की निगरानी मुश्किल हो जाती है।
  • वित्तीय संसाधनों का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग:
    सीमित बजट में शिक्षा के क्षेत्र में अधिकतम सुधार के लिए यह निर्णय आवश्यक था।
  • नई शिक्षा नीति (NEP) के अनुरूप व्यवस्था:
    राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी संसाधनों का केंद्रीकरण और क्लस्टर आधारित स्कूलों की बात कही गई है।

समाधान क्या हो सकता है?

यदि सरकार वाकई शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाना चाहती है, तो स्कूल बंद करने के बजाय निम्न उपाय अधिक प्रभावी हो सकते हैं:

  1. अध्यापक-छात्र अनुपात संतुलन करें।
  2. प्रत्येक विद्यालय में मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित करें।
  3. स्थानीय समुदाय की सहभागिता से विद्यालय चलाएं।
  4. शिक्षा मित्र व स्वयंसेवकों की मदद लें।
  5. प्रेरक और नवाचार युक्त पठन-पाठन को बढ़ावा दें।
  6. बालिकाओं की सुरक्षा हेतु अलग से नीति बनाएं।

निष्कर्ष

सरकारी विद्यालयों का बंद होना केवल आंकड़ों का खेल नहीं है, यह सीधे लाखों बच्चों के भविष्य से जुड़ा विषय है। एक ओर हम डिजिटल इंडिया, आत्मनिर्भर भारत, महिला सशक्तिकरण और समावेशी विकास की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर सबसे ज़रूरी सामाजिक बुनियाद – शिक्षा – को कमजोर कर देते हैं।

सरकार को चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में निर्णय लेते समय केवल आंकड़ों और बजट की नहीं, बल्कि ज़मीन की सच्चाई और सामाजिक प्रभाव की भी समीक्षा करे। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में शिक्षा का अधिकार केवल किताबों तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि वह हर गाँव, हर गली और हर बच्चे तक पहुंचना चाहिए – वह भी गुणवत्ता के साथ।


✍️ लेखक टिप्पणी:
यदि आप इस विषय पर अपनी राय देना चाहते हैं या आपके गाँव में सरकारी स्कूल बंद होने से संबंधित कोई अनुभव है, तो हमें जरूर लिखें। विश्व सेवा संघ हर नागरिक की आवाज़ को मंच देने के लिए प्रतिबद्ध है।

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