सिनेमा जब समाज की चेतना को झकझोरता है, तब वह केवल मनोरंजन नहीं रहता – वह आंदोलन बन जाता है। फिल्म ‘फुले’ भी ऐसा ही एक दस्तावेज़ है – एक ऐसी कहानी, जो केवल बीते वक्त की नहीं, बल्कि आज के भारत की भी है। यह फिल्म सिर्फ ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले की जीवनी नहीं है, बल्कि यह उन सवालों की ओर इशारा है, जिन्हें हमने आज तक पूरी तरह सुलझाया नहीं। फुले: एक अधूरी क्रांति का दस्तावेज़
News Source Social Media
ज्योतिबा फुले कौन थे?
ज्योतिबा फुले 19वीं सदी के एक ऐसे समाज सुधारक थे, जिन्होंने जाति, लिंग और शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी काम किया। उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की, ताकि समाज में फैली रूढ़ियों और ब्राह्मणवादी वर्चस्व को तोड़ा जा सके। उन्होंने शिक्षा को शोषण के खिलाफ हथियार बनाया। उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था – समानता और स्वाभिमान।
सावित्रीबाई फुले: पहली महिला शिक्षिका
सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं। जब समाज में महिलाओं को पढ़ाना पाप समझा जाता था, तब सावित्रीबाई ने न केवल पढ़ाई की, बल्कि लड़कियों के लिए स्कूल भी खोला। लोग उन पर कीचड़ फेंकते थे, गालियां देते थे, लेकिन वह रुकी नहीं। वह हर दिन अपने साथ एक साड़ी का दूसरा सेट लेकर जाती थीं – ताकि अपमान को धोकर शिक्षा का दीपक जला सकें।
फिल्म का महत्व
‘फुले’ फिल्म इन दोनों क्रांतिकारियों की जीवन गाथा को बेहद संवेदनशील और प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करती है। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह एक गरीब, पिछड़े वर्ग का व्यक्ति और उसकी पत्नी – समाज की जड़ता को चुनौती देते हैं। स्कूल खोलना, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन करना, बालिकाओं की शिक्षा – ये सब कदम उस समय के लिए क्रांतिकारी थे।
फिल्म में जहां एक ओर समाज के शोषण का नग्न चित्रण है, वहीं दूसरी ओर फुले दंपति की अडिग इच्छाशक्ति और उनके आत्मबल की प्रेरणादायक झलक भी है।
क्या फुले की सोच आज प्रासंगिक है?
इस सवाल का जवाब बेहद स्पष्ट है – हाँ, और पहले से भी ज्यादा।
आज जब शिक्षा निजीकरण के चंगुल में है, सरकारी स्कूलों की हालत दयनीय है, और जातिगत भेदभाव अभी भी मौजूद है – तब फुले की सोच एक आइना है। वे कहते थे –
“जाति ईश्वर की रचना नहीं, मनुष्य की रचना है।”
आज भी कई दलित और पिछड़े वर्ग के बच्चों को स्कूल में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उच्च शिक्षा संस्थानों में आत्महत्याओं के पीछे जातीय उत्पीड़न एक बड़ा कारण है। फुले का सपना था – समान शिक्षा, बराबरी और गरिमा, जो आज भी अधूरा है।
राजनीति और फुले
दुर्भाग्य की बात है कि ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई को अक्सर केवल दलित या पिछड़े वर्ग तक सीमित कर दिया गया है। जबकि उनकी सोच पूरे समाज के लिए थी।
आज राजनेता फुले की तस्वीरें लगाते हैं, घोषणाएं करते हैं – लेकिन क्या उनके सिद्धांतों को लागू करने का ईमानदार प्रयास किया गया?
क्या स्कूलों में उनके बारे में पढ़ाया जाता है?
क्या सावित्रीबाई फुले को वही सम्मान मिला, जो एक रानी लक्ष्मीबाई को या सरोजिनी नायडू को मिला?
फुले और वर्तमान शिक्षा प्रणाली
फुले का मानना था कि जब तक शिक्षा सबको समान रूप से नहीं मिलेगी, समाज कभी भी बराबरी पर नहीं आ पाएगा।
लेकिन आज शिक्षा एक व्यापार बन चुकी है। अच्छे स्कूल केवल अमीरों के लिए रह गए हैं। गांवों और कस्बों के बच्चों के पास न तो संसाधन हैं, न ही प्रेरणा।
क्या यही वह भारत है, जिसका सपना फुले ने देखा था?
फुले एक विचार हैं
फुले कोई जाति, कोई वर्ग नहीं हैं – वो एक विचार हैं।
वो विचार जो कहता है कि हर बच्चा, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग से हो, उसे बराबरी का अधिकार है।
वो विचार जो कहता है कि स्त्री पुरुष की दासी नहीं, बल्कि उसकी बराबरी है।
वो विचार जो धर्म के नाम पर शोषण का विरोध करता है।
फुले फिल्म क्यों देखनी चाहिए?
यह फिल्म सिर्फ एक जीवनी नहीं, बल्कि एक चेतना है।
यह आपको सोचने पर मजबूर करेगी –
- क्या हम सच में स्वतंत्र हुए हैं?
- क्या हम आज भी फुले के सपनों का भारत बना पाए हैं?
फिल्म आपको असहज कर सकती है, भावुक कर सकती है, लेकिन अंत में यह आपको झकझोरती है। और यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है।
निष्कर्ष: क्या हम तैयार हैं फुले बनने के लिए?
आज जरूरत है कि हम फुले को सिर्फ किताबों में ना छोड़ दें।
जरूरत है कि हम अपने बच्चों को सावित्रीबाई फुले के बारे में बताएं।
जरूरत है कि स्कूलों में उनके नाम पर सिर्फ पोस्टर ना हों, बल्कि उनकी सोच पर अमल हो।
फुले ने जो जंग शुरू की थी – वो अभी खत्म नहीं हुई है।
वो जंग है समानता की, सम्मान की और शिक्षा के अधिकार की।
इसलिए फिल्म ‘फुले’ को देखकर तालियां जरूर बजाइए – लेकिन साथ ही संकल्प भी लीजिए कि आप उस क्रांति को आगे बढ़ाएंगे, जो कभी एक पति-पत्नी ने अकेले शुरू की थी।